A स्वयं समस्या के साथ स्वीकार करें ;
ऐसा करने पर मह निरन्तर जूझने,छिपाने की प्रवृति तथा शर्म के अहसास से मुक्त हो जाते है और तब हमारा मन व मसितष्क खुलकर बोलने के लिये आजाद हो जाता है। कई व्यवित्यो ने माना है कि समस्या को स्वीकार करने के बाद उनकी वाणी निशिचत रूप से बेहतर हुई है मगर इसके लिये हमें स्वयं से ईमानदार और विन्रम बनना पड़ेगा। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस जीवन के सतत नाटक में हर किसी को भिन्न -भिन्न भूमिकाऍ मिली है। इन भूमिकाओं में कभी फायदा तो कभी नुकसान छिपा हो सकता है मगर ये दोनों ही वस्तुतः अस्थाई है जब हम अपनी भूमिका स्वीकार कर लेते है तो कोई संघर्ष नही रह जाता अन्यथा हकलाने वाला व्यवित सदैव सामान्य व्यवित की भूमिका अदा करने का प्रयास करता रहता है जिससे उसके मन में एक दुविधा (रोल कानपिल्क्ट )बनी रहती है, इस दिशा में पहला कदम हैं -अपने निकस्थ लोगों (पत्नी , पति ,माँ ,बाप ,घनिष्ठ मित्र ) से इस बारे में बात करें फिर धीरे-धीरे इस विश्वास के दायरे को बढ़ाऍ।
B-बचने की प्रवृति से छुटकारा पाये ;
दिन-प्रतिदिन हकलाहट से बचने के लिये हमे कई चीजो से कतराते रहे है जैसे-कक्षा में जबाब देने-अजनबियों से बात करना-फोन करना या फोन का जबाब देना-नेत्व्त्व वाली भूमिकाओ से बचना आदि। कठिन शब्द के बजाय कहने में आसान शब्द का प्रयोग करना-भले ही उससे अर्थ कुछ भिन्न हों जाये औरो की मौजूदगी में प्रश्न न पूछना-अपनी बात न रखना आदि। बचने (अवाएडेन्स )की ये सारी छोटी-छोटी हरकते हमारे बुनियादी डर को इतना मजबूत बना देती है की हमारे जीवन के सभी पहलुओ में हावी हो जाता है। नाते रिश्तो में-काम-धन्धे में भी हम खतरा लेने से परहेज करने लगते है। इसका एक ही इलाज है-ठीक उल्टा करना शुरू करें मगर पहले छोटी बातों से। जब बोलना है। है तो बोले-उचित अवसर का इतजार न करें। मीटिंग में स्वयं ही पहल करे-प्रश्न पूछे विभिन्न जिम्मेदारियो के लिये बलंटियर करें।
C, संचार या प्रवाह ;
संचार का बुनियादी अर्थ है अपनी बात दूसरे को समझा पाना। इसके धारा प्रवाह वक्यता होना जरूरी नही मगर संचार सिर्फ बोलना ही नही है- संचार के अन्य पहलुओं पर भी अपनी पकड़ बनाये-मनोयोग से सुन्ना चेहरे व शरीर की भाव भंगिमा (बाड़ी लेंग्वेज ) का समुचित प्रयोग-आँखो से सम्पर्क बनाये रखना आदि। जहां भी उपयुक्त हो मुस्कराये। अवसर की अनुसार द्व्श्य श्रव्य माध्यम का प्रयोग करें। क्या आप सचमुच दूसरे व्यवित को अपने विचारो से छूना चाहते है-यदि हाँ तो आपका हकलाना कभी बाधा नही बनेगा। ऐसा सकारात्मक सोच बनाये। D-शांत मन बेहतर संचार ;
जब बात करना चाहते है तो कथ्य के साथ-साथ कुछ अनचाहे विचार भी मन में चले आते है- यथा-मै इस शब्द पर अट्कूगा या उस शब्द पर। अगर ऐसा हुआ तो श्रोता क्या सोचेगा आदि। इसतरह की दु;चिताये बोलने की प्रक्रिया में बाधक बनती है और वही होता है जिससे मह बचना चाहते थे। ये डर-ये चिताये आखिर आती कहा से है? ये सारे नकारात्मक विचार अतीत में बोलने से जुड़े बुरे अनुभवों से उतपन्न होते है,यहाँ तक की इनका संबंध सुदूर बचपर के अनुभवों से भी हो सकता है। इनसे निपटने का कारगार तरीका है-नियमित आत्म विश्लेषण और ध्यान। हर संस्कति में मनन ,ध्यान के द्धारा उस शान्त मनोदशा में पहुचने की परम्परा है जहां ऐसे काल्पनिक भय व संवेगों से निपटा जा सकता है। E- बोलने का बेहतर तरीका- टेपरिकार्डर-कैमरा-फोन आदि द्धारा किसी से फोन पर बात करते हुये स्वयं को रिकार्ड करें अन्यथा आइने के सामने फोन पर बात करते हुये अपने को देखे।
जब आप किसी शब्द पर मुश्किल महसूस करते है तब आप क्या करते है? उस क्षण को लम्बा खिचे या पूरीतरह फ्रिज कर दे इसतरह यह जानने का प्रयास करें कि उस क्षण में क्या होता है, आप क्या करते है ?आपकी आवाज कैसी होती है ?आपका चेहरा-हाथ व अन्य भाव-भंगिमा कैसी होती है? क्या गले या सीने की मासपेशियों में ज्यादा तनाव होता है ऐसे क्षणों में ?,क्या हमारी पलके झपकती है?, अब इसी हरकत को दुबारा जान बूझकर करे पूरे अहसास के साथ। पहले धीरे-फिर तेज-कम तनाव फिर बहुत ज्यादा तनाव के साथ आदि। यानि उस अनचाही हरकत /प्रतिक्रिया की खूब गहराई में समझ बनाये और उस पर नियंत्रण बनाना शुरू करे। यह सबकुछ एक आइने के सामने करे। इसीतरह गहरी सास लेकर-सास छोड़ते हुये बोलना भी जरूरी है। हम शब्दों पर अटकने के डर से पहले ही अपनी सांस को रोकना शुरू कर देते है। यह वाणी के लिये बुरा है। पेट से (सीने के बजाय )निरंतर गहरी सांस लेते रहना मन को तनावमुक्त व हमारे प्रवाह को बेहतर बनाता है। इसीतरह मौन के क्षणों को भी बातचीत में शामिल करना सीखे। F-विविधता को स्वीकार करें-
अन्ततः समाज क्या कर सकता है इस बारे में? समाज की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। हकलाने से जुडी समस्या का लगभग 90 % सामाजिक प्रतिकियाओ पर निभर्र है। कई पी-डब्ल्यू-एस-ने इस बात को स्वीकार किया है कि अगर उनका परिवार-साथी व अन्य परिजन उनके हकलाने को खुले मन से स्वीकार करते है तो उनकी समस्या कही ज्यादा आसान हो जाती। क्या हम हकलाने को जीवन की अन्य विविधताओं की तरह स्वीकार कर सकते है? इसके बारे में बात कर सकते है? व्यवहार में इसका मतलब होगा - 1-जब आप किसी पी डब्ल्यू एस से बात करे तो खुद धीरे और आराम से बात करें। 2-अपनी निगाहे न फेरे। ध्यान निरंतर उसकी बात पर रखे न कि चेहरे की असामान्य प्रतिक्रियाओं पर। 3-समझ न आने पर जरूर पूछे पर उसकी बात बीच में न काटे। उसे आपकी बात आराम से कहने दे। 4-ऐसे बच्चो से बात करते समय बहुत से सवाल एक साथ न पूछे। उन्हें अपनी बात पूरी करने दे-फिर कुछ छण रुके और तब आराम से पूछे।
5-बच्चे की समस्या पर वस्तुनिष्ठ ढ़ग से चर्चा करें-कभी इसका मजाक न बनाए।
ऐसा करने पर मह निरन्तर जूझने,छिपाने की प्रवृति तथा शर्म के अहसास से मुक्त हो जाते है और तब हमारा मन व मसितष्क खुलकर बोलने के लिये आजाद हो जाता है। कई व्यवित्यो ने माना है कि समस्या को स्वीकार करने के बाद उनकी वाणी निशिचत रूप से बेहतर हुई है मगर इसके लिये हमें स्वयं से ईमानदार और विन्रम बनना पड़ेगा। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस जीवन के सतत नाटक में हर किसी को भिन्न -भिन्न भूमिकाऍ मिली है। इन भूमिकाओं में कभी फायदा तो कभी नुकसान छिपा हो सकता है मगर ये दोनों ही वस्तुतः अस्थाई है जब हम अपनी भूमिका स्वीकार कर लेते है तो कोई संघर्ष नही रह जाता अन्यथा हकलाने वाला व्यवित सदैव सामान्य व्यवित की भूमिका अदा करने का प्रयास करता रहता है जिससे उसके मन में एक दुविधा (रोल कानपिल्क्ट )बनी रहती है, इस दिशा में पहला कदम हैं -अपने निकस्थ लोगों (पत्नी , पति ,माँ ,बाप ,घनिष्ठ मित्र ) से इस बारे में बात करें फिर धीरे-धीरे इस विश्वास के दायरे को बढ़ाऍ।
B-बचने की प्रवृति से छुटकारा पाये ;
दिन-प्रतिदिन हकलाहट से बचने के लिये हमे कई चीजो से कतराते रहे है जैसे-कक्षा में जबाब देने-अजनबियों से बात करना-फोन करना या फोन का जबाब देना-नेत्व्त्व वाली भूमिकाओ से बचना आदि। कठिन शब्द के बजाय कहने में आसान शब्द का प्रयोग करना-भले ही उससे अर्थ कुछ भिन्न हों जाये औरो की मौजूदगी में प्रश्न न पूछना-अपनी बात न रखना आदि। बचने (अवाएडेन्स )की ये सारी छोटी-छोटी हरकते हमारे बुनियादी डर को इतना मजबूत बना देती है की हमारे जीवन के सभी पहलुओ में हावी हो जाता है। नाते रिश्तो में-काम-धन्धे में भी हम खतरा लेने से परहेज करने लगते है। इसका एक ही इलाज है-ठीक उल्टा करना शुरू करें मगर पहले छोटी बातों से। जब बोलना है। है तो बोले-उचित अवसर का इतजार न करें। मीटिंग में स्वयं ही पहल करे-प्रश्न पूछे विभिन्न जिम्मेदारियो के लिये बलंटियर करें।
C, संचार या प्रवाह ;
संचार का बुनियादी अर्थ है अपनी बात दूसरे को समझा पाना। इसके धारा प्रवाह वक्यता होना जरूरी नही मगर संचार सिर्फ बोलना ही नही है- संचार के अन्य पहलुओं पर भी अपनी पकड़ बनाये-मनोयोग से सुन्ना चेहरे व शरीर की भाव भंगिमा (बाड़ी लेंग्वेज ) का समुचित प्रयोग-आँखो से सम्पर्क बनाये रखना आदि। जहां भी उपयुक्त हो मुस्कराये। अवसर की अनुसार द्व्श्य श्रव्य माध्यम का प्रयोग करें। क्या आप सचमुच दूसरे व्यवित को अपने विचारो से छूना चाहते है-यदि हाँ तो आपका हकलाना कभी बाधा नही बनेगा। ऐसा सकारात्मक सोच बनाये। D-शांत मन बेहतर संचार ;
जब बात करना चाहते है तो कथ्य के साथ-साथ कुछ अनचाहे विचार भी मन में चले आते है- यथा-मै इस शब्द पर अट्कूगा या उस शब्द पर। अगर ऐसा हुआ तो श्रोता क्या सोचेगा आदि। इसतरह की दु;चिताये बोलने की प्रक्रिया में बाधक बनती है और वही होता है जिससे मह बचना चाहते थे। ये डर-ये चिताये आखिर आती कहा से है? ये सारे नकारात्मक विचार अतीत में बोलने से जुड़े बुरे अनुभवों से उतपन्न होते है,यहाँ तक की इनका संबंध सुदूर बचपर के अनुभवों से भी हो सकता है। इनसे निपटने का कारगार तरीका है-नियमित आत्म विश्लेषण और ध्यान। हर संस्कति में मनन ,ध्यान के द्धारा उस शान्त मनोदशा में पहुचने की परम्परा है जहां ऐसे काल्पनिक भय व संवेगों से निपटा जा सकता है। E- बोलने का बेहतर तरीका- टेपरिकार्डर-कैमरा-फोन आदि द्धारा किसी से फोन पर बात करते हुये स्वयं को रिकार्ड करें अन्यथा आइने के सामने फोन पर बात करते हुये अपने को देखे।
जब आप किसी शब्द पर मुश्किल महसूस करते है तब आप क्या करते है? उस क्षण को लम्बा खिचे या पूरीतरह फ्रिज कर दे इसतरह यह जानने का प्रयास करें कि उस क्षण में क्या होता है, आप क्या करते है ?आपकी आवाज कैसी होती है ?आपका चेहरा-हाथ व अन्य भाव-भंगिमा कैसी होती है? क्या गले या सीने की मासपेशियों में ज्यादा तनाव होता है ऐसे क्षणों में ?,क्या हमारी पलके झपकती है?, अब इसी हरकत को दुबारा जान बूझकर करे पूरे अहसास के साथ। पहले धीरे-फिर तेज-कम तनाव फिर बहुत ज्यादा तनाव के साथ आदि। यानि उस अनचाही हरकत /प्रतिक्रिया की खूब गहराई में समझ बनाये और उस पर नियंत्रण बनाना शुरू करे। यह सबकुछ एक आइने के सामने करे। इसीतरह गहरी सास लेकर-सास छोड़ते हुये बोलना भी जरूरी है। हम शब्दों पर अटकने के डर से पहले ही अपनी सांस को रोकना शुरू कर देते है। यह वाणी के लिये बुरा है। पेट से (सीने के बजाय )निरंतर गहरी सांस लेते रहना मन को तनावमुक्त व हमारे प्रवाह को बेहतर बनाता है। इसीतरह मौन के क्षणों को भी बातचीत में शामिल करना सीखे। F-विविधता को स्वीकार करें-
अन्ततः समाज क्या कर सकता है इस बारे में? समाज की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। हकलाने से जुडी समस्या का लगभग 90 % सामाजिक प्रतिकियाओ पर निभर्र है। कई पी-डब्ल्यू-एस-ने इस बात को स्वीकार किया है कि अगर उनका परिवार-साथी व अन्य परिजन उनके हकलाने को खुले मन से स्वीकार करते है तो उनकी समस्या कही ज्यादा आसान हो जाती। क्या हम हकलाने को जीवन की अन्य विविधताओं की तरह स्वीकार कर सकते है? इसके बारे में बात कर सकते है? व्यवहार में इसका मतलब होगा - 1-जब आप किसी पी डब्ल्यू एस से बात करे तो खुद धीरे और आराम से बात करें। 2-अपनी निगाहे न फेरे। ध्यान निरंतर उसकी बात पर रखे न कि चेहरे की असामान्य प्रतिक्रियाओं पर। 3-समझ न आने पर जरूर पूछे पर उसकी बात बीच में न काटे। उसे आपकी बात आराम से कहने दे। 4-ऐसे बच्चो से बात करते समय बहुत से सवाल एक साथ न पूछे। उन्हें अपनी बात पूरी करने दे-फिर कुछ छण रुके और तब आराम से पूछे।
5-बच्चे की समस्या पर वस्तुनिष्ठ ढ़ग से चर्चा करें-कभी इसका मजाक न बनाए।
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